कुसुम-कली
- Mast Culture

- Oct 9
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By Sangeeta Digvijay Singh
हे जननी,
कुसुम-कली को धरती के प्रांगण में आने दो,
खग-विहग के कलरव ध्वनि सुनकर हर्षाने दो,
कोकिला जैसी कुहुँ-कुहुँ मधुर गीत गाने दो,
सावन के मेघा में मयूरी बनाकर नृत्य करने दो,
रंग-बिरंगी तितली बनकर कल्पना की उड़ान भरने दो,
कली को पूर्ण बनकर धरा को हृदय से नमन करने दो ।
किस व्यथा से जूझ रही हो?
भयभीत व संवेदनहीन होकर,
प्रतिपल अपने ही स्वरूप को मार रही हो ।
सामाजिक कुरीतियों में फंसकर,
अपने ही बाग की डाली काटने की सोच रही हो,
कुल दीपक की प्रचंड चाह में झांसी की रानी, इंदिरा, किरण बेदी, लता मंगेशकर जैसी राष्ट्र की ज्योति-पुंज को आने से रोक रही हो ।
हे जननी,महिषासुर रूपी बुराइयां कन्या-भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, लिंग के आधार पर भेदभाव,बलात्कार इन सब बुराइयों के जड़ में प्रहार करना होगा,
सोच बदलना होगा,कलुषित मानसिकता से लड़ना होगा।
अर्ध -निद्रा में विद्रोही-स्वर से चिखती-चिल्लाती माँ, ज्योति को कोख में ना मारूंगी ।
राष्ट्रीय ज्योति-पुंज अब प्रस्फुटित होकर,
मेरे घर-अंगना में कुसुम-पुष्प बनकर आएगी
By Sangeeta Digvijay Singh



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