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श्रृंगार

  • Writer: Mast Culture
    Mast Culture
  • Jul 8
  • 2 min read

By Sneha Maheshwari


मां, तुम सजना संवरना भूल गई हो ना

वो अधर पर सजी लालिमा,

आंखों में सुरमा, और उन लंबे घने कैशो को बांधकर गजरा लगाना भूल गई हो ना,

मां , शीशे में खुदको देखकर बलाएं लेना भूल गई हो ना,

तुम सजना संवरना भूल गई हो ना,


प्रणयिनी, मातृ, ननंद, भाभी तमाम रिश्तों को संभालती हो,

पर स्वयं के स्वयं से रिश्ते को भूल गई हो ना,

अपने ख्वाबों को किसी ऊंचे दराज के संदूक में बंद कर दिया है तुमने,

बताओ ना मां तुम अपने उस लाहसिल बचपन को भूल गई हो ना,


देखा है मैने,

इन आंखों में नमी को छुपाते हुए,

बचपन के गीतों को गुनगुनाते हुए,

व्यक्तित्व पर उठते सवालों पर भी,

लोक लाज मर्यादा के अभिनय में, मौन को चुनते हुए,

तुम अपनी बातें कहना भूल गई हो ना,

मां तुम मुस्कुराना भूल गई हो ना,


ना भूली तुम तो बस,

वह मांग का सिंदूर, माथे की बिंदिया, नाक की नथनी और हाथों के कंगन,

जो प्रतिपल याद दिलाते है तुम्हे एक पतिव्रता के कर्तव्यों की,

जानती हूं , जानती हूं ,

अग्नि की साक्षी में लिए गए वे सप्त वचन ,

उन वचनों में स्वामी का साथ निभाना था,

अधीन होकर खुदको भूल जाना नहीं था ना,

पग पग साथ चलना था,

पर स्वयं को पीछे छोड़ना नहीं था ना,


ना भूली तुम तो उस मातृत्व को,

असहनीय कष्ट और पीड़ा का वहन,

वचन था उस कलेजे के टुकड़े से,

वक्त के हर पहर में उसके साथ रहने का,

वात्सल्य की ओट में स्वयं के अस्तित्व को दरकिनार करना नहीं था ना,

मां अपनो की खातिर अपने से रिश्ता तोड़ना नहीं था ना,


जीवन की करवटों में, वक्त की चादर ओढ़ चली हो तुम बाबुल की गलियों को स्वप्नों में छोड़,

मां तुम भी तो बेटी हो किसी आंगन की,

ससुराल की बगिया को सजाते सजाते , मायके की फुलवारी को भूल गई हो ना,

तुम सजना संवरना भूल गई हो ना,


उम्र की ढलान है मानती हूं,

काया शिथिल जान पड़ती है तुम्हारी,

पर वह लाल साड़ी तो प्रिय है ना तुम्हे मां,

वह बाली जो लाई थी तुम कभी अपने लिए,

अब कहां खो गई है मां,


तुम खूबसूरत हो , सबसे खूबसूरत,

यह सौंदर्य कृत्रिम नहीं है मां,

आज मैं सजाऊंगी तुम्हे, तुम्हारे लिए,

उसी लाल साड़ी में, जिसे छुपा लिया है तुमने कहीं,

संवार कर इन काली घटाओं को , पहनाऊंगी एक गजरा

भूलूंगी नहीं बिंदिया और पांव में पैजनिया,

आंखों में सुरमा और वे बेशकीमती कंगन,


फिर मन ही मन खुश हो जाऊंगी , तुम्हारे मनमोहक रूप पर जब देखोगी तुम खुद को उस आईने में,


और हां मां, बादल बरसने को है,

इस बार चाय तुम्हारी पसंद की बनाना,

चीनी कम और पत्ती ज्यादा,

फिर उसी चाय की चुस्कियां लेते हुए बिताना कुछ वक्त ,

उस रिश्ते को फिर से पहचानने में , जो था तुम्हारा स्वयं के साथ,

पहनना वही साड़ी जो तुम्हे प्रिय है,

और सजाना अपने रूप को भली भांति।।



By Sneha Maheshwari

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