Letter For My Loved One
- Mast Culture

- Oct 10
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By Vaishnavi Holey
मेरे प्रिय,
जो भी मैंलिखने जा रही ह ूँ, उसमें मेरे शब्द नहीीं, भाव चुनने की इच्छा रखती ह ूँतुमसे।
फिर तुम कहोगे फक पत्र की क्या आवश्यकता? तो तुम समझ िो — बस मेरे अक्षरों में तुम्हें क़ैद करना
बाकी था, सो कर रही ह ूँ।
तुम्हें गिे िगाने का मन करता ह़ै— एक बार जी भर के देखकर आूँखों में बसाने का। मैं, जजस दनुनया
की शहजादी ह ूँ, उसी में तुम्हें जजतना चाह ूँ; ऐसी बात नहीीं फक आज तक मनैं े तुम्हें आजमाया ही नहीीं।
ख ब दाूँत-िटकार भी िगाई मनैं े। फिर चाहे वो चादर पे पडी लसिवटें हों या बबखरी हुई चीजें — मैं या
मेरा सामान, ये सब तुम्हारा ही फकया धरा ह़ै; इसमें मैंने शक का कोई िावधान नहीीं रखा।
िोग कहते हैंमेरी बातों में तुम सुनाई देते हो और आूँखों में समाए हुए हो। पर मेरी कशमकश देखो —
मैंतुम्हें दनुनया में ढ ींढती फिरती ह ूँ। कभी मझु से गप्पे िडते हो तो कभी मेरी चोटी बनाते हो — हाूँ-हाूँ,
चाय भी बना िेते हो और कभी-कभी मेरी टाूँग भी खीींचते हो ।
य ीं तो बताऊूँ फक आखूँ ों में लसिफ तुम ही नहीीं — आूँस भी बसे हैंमेरे। सोचती ह ूँकाश तुम्हें ददि का कुछ
हाि सुनाऊूँ, थोडा सा बोझ हल्का कर िूँ । पर मैंअनजान नहीीं फक तुम अभी नादान हो, उम्र के कच्चे हो
— इतने छोटे ददमाग़ में मेरी बातें उतरेंगी नहीीं। और फिर ये नादानीयों का लसिलसिा भी तो फकसी न
फकसी तरह समझदारी से चिता आ रहा हैं।और हाूँ, आूँसुओीं का बस यही आिम नहीीं फक मेरा मन हल्का
हो रहा ह़ै — कहीीं न कहीीं वे तुम्हें तिाशते हैं; वो तुमसे रूठना चाहते हैंऔर तुमसे ही मनाना। मानो मेरी
समझदारी तो ब़ैर ह़ै, तेरा िगाव जो ह़ै नादानी में।
हाूँ-हाूँ, मैंखुश ह ूँ— बहुत खशु ! ऐसे ही। मगर िोगों को िमाण चादहए फकसी भी ररश्ते का: तुम्हारे और
मेरे िेम से बढ़कर, तुम्हारी मौज दगी ही ररश्ते का वज द ह़ै— मानो उनके लिए।
मैंतो कह ूँ, अगर ऐसे ह़ैतो मेरी जजींददगी इक ददन जी के देखे कोई: सुबह की चाय तुम्हारे साथ, ददनभर
की नोक-झोंक, तुम्हारी खाने की िरमाइश, या तुम्हारे कररयर का टेंशन — रात की चाींदनी में तुम्हारे
दपफण, त्यौहारों में तुम्हारे िती समपणफ । तुम्हें मैंतुमसे ज़्यादा जीती ह ूँ— और खुद को शायद और भी
ज़्यादा। अरे, मेरी एक ही जजन्दगी में तुम और मैंऐसे दो फकरदार ननभा रही ह ूँ— क्या ये िमाण पयाफप्त
नहीीं ?
कोई नाप सके तो नाप िे।
बस अब तुमसे जुडना चाहती ह ूँ, गिे िगाना चाहती ह ूँऔर हाूँ— जी भर के डाूँटना भी चाहती ह ूँ। थोडा
रौब जमाना ह़ै, कुछ अच्छी-बुरी बातें लसखानी हैं, दनुनयादारी पर भाषण भी तो बनता ह़ै, न?
बस तुम मेरे ही बन कर रहो ज़ैसे मेरे हो — िोगों को िमाण देने के लिए नहीीं, मेरे दस रे फकरदार को
जीने के लिए।
तुम्हारे स्वरूप से भी अधधक सुींदर ह़ैये फकरदार — ननिःसींशय।
ये ख़त तो श्री कृष्ण यादव भी पढ़ िेंगे, पर समझने के लिए मेरे दाद (कान्ह ) पयाफप्त हैं। और ये तुम्हारी
बडी बहन — तुमसे अनुरोध नहीीं, हुक्म कर रही ह़ै।
मुझे प्रवश्वास ह़ै— तुम ही हो मेरे उस दस रे फकरदार के कणधफ ार ! वरना तुम्हारी इच्छा के बबना इस
दनुनया का कोई पत्ता भी नहीीं दहिता
तुम्हारी दीदी
By Vaishnavi Holey



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