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Letter For My Loved One

  • Writer: Mast Culture
    Mast Culture
  • Oct 10
  • 3 min read

By Vaishnavi Holey


मेरे प्रिय,


जो भी मैंलिखने जा रही ह ूँ, उसमें मेरे शब्द नहीीं, भाव चुनने की इच्छा रखती ह ूँतुमसे।

फिर तुम कहोगे फक पत्र की क्या आवश्यकता? तो तुम समझ िो — बस मेरे अक्षरों में तुम्हें क़ैद करना

बाकी था, सो कर रही ह ूँ।


तुम्हें गिे िगाने का मन करता ह़ै— एक बार जी भर के देखकर आूँखों में बसाने का। मैं, जजस दनुनया

की शहजादी ह ूँ, उसी में तुम्हें जजतना चाह ूँ; ऐसी बात नहीीं फक आज तक मनैं े तुम्हें आजमाया ही नहीीं।

ख ब दाूँत-िटकार भी िगाई मनैं े। फिर चाहे वो चादर पे पडी लसिवटें हों या बबखरी हुई चीजें — मैं या

मेरा सामान, ये सब तुम्हारा ही फकया धरा ह़ै; इसमें मैंने शक का कोई िावधान नहीीं रखा।


िोग कहते हैंमेरी बातों में तुम सुनाई देते हो और आूँखों में समाए हुए हो। पर मेरी कशमकश देखो —

मैंतुम्हें दनुनया में ढ ींढती फिरती ह ूँ। कभी मझु से गप्पे िडते हो तो कभी मेरी चोटी बनाते हो — हाूँ-हाूँ,

चाय भी बना िेते हो और कभी-कभी मेरी टाूँग भी खीींचते हो ।


य ीं तो बताऊूँ फक आखूँ ों में लसिफ तुम ही नहीीं — आूँस भी बसे हैंमेरे। सोचती ह ूँकाश तुम्हें ददि का कुछ

हाि सुनाऊूँ, थोडा सा बोझ हल्का कर िूँ । पर मैंअनजान नहीीं फक तुम अभी नादान हो, उम्र के कच्चे हो

— इतने छोटे ददमाग़ में मेरी बातें उतरेंगी नहीीं। और फिर ये नादानीयों का लसिलसिा भी तो फकसी न

फकसी तरह समझदारी से चिता आ रहा हैं।और हाूँ, आूँसुओीं का बस यही आिम नहीीं फक मेरा मन हल्का

हो रहा ह़ै — कहीीं न कहीीं वे तुम्हें तिाशते हैं; वो तुमसे रूठना चाहते हैंऔर तुमसे ही मनाना। मानो मेरी

समझदारी तो ब़ैर ह़ै, तेरा िगाव जो ह़ै नादानी में।


हाूँ-हाूँ, मैंखुश ह ूँ— बहुत खशु ! ऐसे ही। मगर िोगों को िमाण चादहए फकसी भी ररश्ते का: तुम्हारे और

मेरे िेम से बढ़कर, तुम्हारी मौज दगी ही ररश्ते का वज द ह़ै— मानो उनके लिए।


मैंतो कह ूँ, अगर ऐसे ह़ैतो मेरी जजींददगी इक ददन जी के देखे कोई: सुबह की चाय तुम्हारे साथ, ददनभर

की नोक-झोंक, तुम्हारी खाने की िरमाइश, या तुम्हारे कररयर का टेंशन — रात की चाींदनी में तुम्हारे

दपफण, त्यौहारों में तुम्हारे िती समपणफ । तुम्हें मैंतुमसे ज़्यादा जीती ह ूँ— और खुद को शायद और भी

ज़्यादा। अरे, मेरी एक ही जजन्दगी में तुम और मैंऐसे दो फकरदार ननभा रही ह ूँ— क्या ये िमाण पयाफप्त

नहीीं ?

कोई नाप सके तो नाप िे।


बस अब तुमसे जुडना चाहती ह ूँ, गिे िगाना चाहती ह ूँऔर हाूँ— जी भर के डाूँटना भी चाहती ह ूँ। थोडा

रौब जमाना ह़ै, कुछ अच्छी-बुरी बातें लसखानी हैं, दनुनयादारी पर भाषण भी तो बनता ह़ै, न?

बस तुम मेरे ही बन कर रहो ज़ैसे मेरे हो — िोगों को िमाण देने के लिए नहीीं, मेरे दस रे फकरदार को

जीने के लिए।


तुम्हारे स्वरूप से भी अधधक सुींदर ह़ैये फकरदार — ननिःसींशय।


ये ख़त तो श्री कृष्ण यादव भी पढ़ िेंगे, पर समझने के लिए मेरे दाद (कान्ह ) पयाफप्त हैं। और ये तुम्हारी

बडी बहन — तुमसे अनुरोध नहीीं, हुक्म कर रही ह़ै।


मुझे प्रवश्वास ह़ै— तुम ही हो मेरे उस दस रे फकरदार के कणधफ ार ! वरना तुम्हारी इच्छा के बबना इस

दनुनया का कोई पत्ता भी नहीीं दहिता


तुम्हारी दीदी


By Vaishnavi Holey

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